पंडरिया के बिरन माला की चर्चा बिलासपुर में आयोजित कविता पाठ व फोटो किस्सा में
पंडरिया : इस “बिरन माला” से द लोक मीडिया के मंच पर पंडरिया के गोपिकिशन जी के माध्यम से मिली सौग़ात व जानकारी के लिए “बस्तर की सुबह”के लेखक डॉ कवि व सभी अतिथियों ने आभार माना।डॉ रूपेन्द्र कवि मूलतः एक मानवशाष्त्री हैं , उतना ही पकड़ एक कवि-लेखक के रूप में है।“बस्तर की सुबह” कविता संग्रह के लेखक के रूप में अपनी सशक्त उपस्तिथी बना रहे हैं।
मौक़ा था द लोक मीडिया के कार्यक्रम जो की विगत दिनों कंट्री क्लब,कोनी ,बिलासपुर “कविता पाठ व फोटोक़िस्सा” के दौरान “सगवारी जंक्शन “ में अलगअलग विधा के हस्तियों का मिलना हुआ।कार्यक्रम में पहूना रहे डॉ कवि को जब “सोने की माला” पहना कर पंडरीया के गोपीकिशन जी ने स्वागत यह कहते हुआ किया कि ये माला दो आदिवासी क्षेत्र बस्तर व कवर्धा का मिलन का माध्यम बना, सुखद व उत्सुक क्षन था।
यह माला दरअसल सोने की सी दिखती है पर घाँस से निर्मित होती है “बिरन माला” के नाम से बैगा जनजाति के बीच प्रसिद्ध है।खास अवसर पर पहनी जाती है बिरन माला।कोई धार्मिक कार्यक्रम हो या फिर मेला-मड़ई या फिर उत्सव या विवाह,अपने अतिथियों का स्वागत बैगा आदिवासी इसी बिरन माला से करते हैं। नृत्य के अवसर पर बैगा महिलाएं इसे सिर पर भी धारण करती हैं।ऐसे में पहुना के रूप में ये माला पहनना एक अविस्मरणीय पल है।
यदि माला के बारे में बोला जाय तो घासों से बनती है -बिरन माला ।सोने की नहीं वरन सोने-सी यह माला वस्तुतः घास से बनती है। यह बैगा आदिवासियों का एक प्रिय गहना है। जिसे खिरसाली नाम के पेड़ के तने और सुताखंड और मुंजा घास के रेशों से बनाया जाता है। आमतौर पर माला को गूंथने के लिए मुंजा घास का प्रयोग सबसे ज्यादा किया जाता है, क्योंकि यह बहुतायत में होती है। यह अक्टूबर-नवंबर माह में उगती है। पहले खिरसाली के तने को छीलकर समान आकार के छल्ले बनाए जाते हैं। फिर उन्हें गूंथा जाता है फिर हल्दी के घोल में डुबा कर सुखाया जाता है। अन्य प्राकृतिक रंगों में भी इन्हें रंगा जा सकता है। ऐसी एक माला को बनाने में कम से कम तीन दिन लग जाते हैं। पूरा काम बड़े जतन से हाथ से किया जाता है। बैगा आदिवासी मानते हैं कि इसे धारण करने से आसन्न संकट भी टल जाता है। उनकी धार्मिक आस्था भी इससे जुड़ी हुई है।