नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के फैसले को लेकर केंद्र सरकार समीक्षा याचिका दाखिल करने की तैयारी में है। इस ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। साथ ही, उसने राष्ट्रपति के समक्ष भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा भी तय की है। सर्वोच्च अदालत के इस फैसले पर कानून के जानकारों के बीच भी बहस छिड़ गई है और वह भविष्य के संवैधानिक संकट को लेकर आशंकित हैं।
द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार इस फैसले को चुनौती देने के लिए एक याचिका तैयार कर रही है। सरकार का मानना है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों के लिए समयसीमा निर्धारित करना न्यायपालिका की सीमा से बाहर जा सकता है।
कानून के विशेषज्ञों के बीच बहस
इस बीच, संवैधानिक और विधिक विशेषज्ञों के बीच यह बहस छिड़ गई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट वास्तव में भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि यह शायद पहली बार है जब न्यायालय ने सीधे तौर पर राष्ट्रपति को कोई समयसीमा तय करने संबंधी निर्देश दिया है।
राज्यपाल की वजह से करना पड़ा हस्तक्षेप
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कुमार ने द इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में लिखा है कि कोर्ट को यह हस्तक्षेप इसलिए करना पड़ा ताकि राज्यपाल अपनी संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन न करें। उनका मानना है कि यह फैसला एक तरह से अनुशासनात्मक कदम है, जिससे अन्य राज्यपालों को भी एक स्पष्ट संदेश मिलेगा कि वे संविधान के दायरे में रहकर ही काम करें।
राष्ट्रपति को निर्देश देने पर सवाल
हालांकि, इस फैसले ने एक नई संवैधानिक बहस को जन्म दे दिया है—क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश देने की स्थिति में है? यह तर्क दिया जा रहा है कि राष्ट्रपति कोई सामान्य सरकारी पदाधिकारी नहीं है, बल्कि वह देश का प्रमुख, संविधान का संरक्षक और सशस्त्र बलों का सर्वोच्च कमांडर है। वह प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की ‘सलाह और सहायता’ से काम करता है।
न्यायपालिका नई लक्ष्मण रेखा खींच रहा?
यदि न्यायालय राष्ट्रपति को कोई आदेश देता है, तो इससे उस संवैधानिक व्यवस्था पर सवाल उठ सकता है, जिसमें राष्ट्रपति केवल कार्यपालिका की सलाह पर काम करता है। इससे यह शंका भी उत्पन्न होती है कि क्या कोर्ट, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की लक्ष्मण रेखा को पार कर रहा है?
राष्ट्रपति निर्देश मानने से इनकार कर दे तो?
क्या सुप्रीम कोर्ट इस फैसले के जरिए राष्ट्रपति के लिए एक नई संवैधानिक स्थिति गढ़ रहा है? अगर राष्ट्रपति इस निर्देश को मानने से इनकार करता है तो क्या उसे अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया जा सकता है? यह एक कठिन संवैधानिक सवाल है, क्योंकि भारतीय संविधान के तहत राष्ट्रपति को उसके कृत्यों के लिए अदालत में व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
यह बहस इसलिए भी गंभीर है क्योंकि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने सुनाया है। जबकि यह स्पष्ट है कि कोर्ट राज्यपालों की अनियंत्रित शक्ति पर लगाम लगाना चाहता है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि इस प्रक्रिया में राष्ट्रपति की संवैधानिक गरिमा और स्वतंत्रता भी प्रभावित हो सकती है।
राज्यपाल पर हुए फैसले की सराहना
तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में आया सुप्रीम कोर्ट यह फैसला निश्चित रूप से एक मिसाल कायम करता है। इससे यह संदेश जाता है कि राज्यपाल संविधान के तहत तय समयसीमा और प्रक्रिया का पालन करने के लिए बाध्य है। यह निर्णय संविधान की मूल भावना की रक्षा की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है, लेकिन साथ ही इससे जुड़ी संवैधानिक पेचीदगियों को लेकर सवाल भी कम नहीं हैं।